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पड़ोसन बनी दुल्हन-10

This story is part of the Padosan bani dulhan series

मेरे सेठी साहब के लण्ड को सिर्फ पतलून के ऊपर से छूते ही मुझे महसूस हुआ जैसे सेठी साहब के लण्ड में से उसका वीर्य रिसने लगा, क्यूंकि चन्द पलों में ही उसके ज़िप का हिस्सा चिकनाहट से भर गया। शायद वह वीर्य नहीं पर उनके लण्ड का पूर्व रस था जो उत्तेजित होते हुए ही किसी भी मर्द के लण्ड के छिद्र से रिसने लगता है और जो मर्द की उत्तेजना को दर्शाता है।

मैंने सेठी साहब के लण्ड के ऊपर हाथ फिराते हुए सेठी साहब की और देखा। हालांकि उनका ध्यान उनके लण्ड के ऊपर ही होगा पर उनकी आँखें सीधा देख रहीं थीं। उस समय मुझे सेठी साहब के ऊपर बेतहाशा प्यार आ रहा था।

सेठी साहब के गाढ़ चुम्बन करने से और बड़ी गर्मजोशी से मेरे स्तनोँ को मसलने के कारण मैं इतनी ज्यादा गरम हो चुकी थी की मेरी चूत में से मेरा स्त्री रस थमने का नाम नहीं ले रहा था। मेरी चूत और मेरी गाँड़ तक गीली हो रहीं थीं। मैंने सेठी साहब के पतलून के ऊपर से ही सेठी साहब के लण्ड को सहलाना शुरू किया।

अब मैं सेठी साहब से चुदवाने के लिए पागल हो रही थी। मैंने मेरे पति और सुषमाजी से सेठी साहब की तगड़ी और आक्रमक चुदाई के बारे में सूना था। मेरे पति ने तो सेठी साहब के लण्ड का भी काफी विस्तार से वर्णन किया था। मेरे लिए अब वह लण्ड को अपनी चूत में डलवा कर चुदवाना जैसे मेरे जीवन का एक ध्येय सा बन गया था।

मैंने सेठी साहब के पतलून की ज़िप खोल कर उनके लण्ड को अंदर से सहलाने की कोशिश की। पर सेठी साहब के बैठने के कारण ज़िप तो खुल गयी पर निक्कर से लण्ड निकालना नामुमकिन था। मैं सेठी साहब का लण्ड चूमने और चूसने के लिए बेताब थी। सेठी साहब ने मेरी बेसब्री को महसूस किया।

उन्हें भी शायद अपना लण्ड चूसवाने की इच्छा होगी, पर क्या करें उस समय, जगह और हालात में वह सब संभव नहीं था। मैंने सेठी साहब के लण्ड के फूल जाने से जो बड़ा सा गुब्बारा जैसा तम्बू बना था उस पर अपनी उंगलियां फिरा कर ही अपने आप को तसल्ली दी। उस वक्त सेठी साहब मेरे सर पर हाथ फिरा कर शायद मुझे यह तसल्ली देने की कोशिश कर रहे थे की जब समय आएगा तो वह अपने आप ही मुझसे अपने लण्ड का सामना करा देंगे।

अब ज्यादा समय नहीं बचा था। कार को घर पहुंचने में आधे घंटे का समय रह गया था। कुछ देर तक मैंने सेठी साहब की जाँघों के बिच उनकी ज़िप को चूमा। सेठी साहब इस अनुभव से काफी बेबाक से आगे की सड़क को देख रहे थे। शायद उनके मन में जगह और समय ना होने का अफ़सोस रहा होगा क्यूंकि उन्होंने कुछ देर के बाद हलके से मेरे मुंह को हटाया और हलके से मेरे कानों में बोले, “रुको, अभी पूरी रात बाकी है। कार जल्द ही घर पहुँचने वाली है।”

मैंने फटाफट ड्राइवर ना देख पाए ऐसे लगभग सेठी साहब की गोद में बैठ कर सेठी साहब का सर अपने हाथों में पकड़ा और अपनी और खिंच कर सेठी साहब कुछ बोल या समझ पाएं उसके पहले यह बोलते हुए की “सेठी साहब आई लव यू वैरी मच” उनको होठोँ पर एक जोश भरा चुम्बन किया। मेरे इस जोशखरोश भरे चुम्बन से स्तब्ध हो कर सेठी साहब मेरी और देखते ही रह गए।

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कार हमारे गॉंव में पहुँच चुकी थी। मैंने ड्राइवर को घर जाने का रास्ता दिखाते हुए मार्गदर्शन किया। घर पहुंचने पर मेरे मायके वालों ने जब हमारी कार के हॉर्न की आवाज सुनी तो घर के दरवाजे में पुरे घर के सभी सदस्य बनठन कर हाजिर हो गए। मेरी भाभी के हाथों में एक थाल था जसमें आरती जल रही थी। सेठी साहब के दरवाजे के करीब पहुँचते ही भाभी ने सेठी साहब की आरती उतारी और कपाल पर तिलक किया और गले में फूलों की माला पहनाई। सेठी साहबने उनकी इस तरह की आवभगत की कल्पना भी नहीं की होगी।

सेठी साहब का सामान उनके ऊपर की मंजिल में एक कमरे में रख दिया गया और मेरा सामान उसके बाजू वाले के कमरे में रख दिया गया। सेठी साहब के सामने मेरे पिताजी ने हाथ जोड़ कर आग्रह किया की वह चाहते थे की सेठी साहब हमारे यहां पुरे तीन दिन रुकें जब तक उनका जयपुर में काम है। काफी जद्दोजहद के बाद आखिर में सेठी साहब को मानना ही पड़ा।

फ्रेश होने के लिए जब मैं सेठी साहब को उनके कमरे में ले गयी तो मैंने देखा की उनके कमरे में व्हिस्की की एक बोतल और कुछ गिलास रखे हुए थे। एक आइस बॉक्स में बर्फ के टुकड़े भी रखे हुए थे। मेरे भाई को शायद मेरे पति ने बता दिया था की सेठी साहब ड्रिंक करते हैं। सेठी साहब ने मेरी और आश्चर्य से देखा। मैंने कंधे हिलाकर उनको जताया की मुझे इसके बारे में कोई जानकारी नहीं थी। मैंने सेठी साहब से अनुग्रह किया की अगर वह चाहें तो डिनर से पहले एकाध ड्रिंक ले कर निचे भोजन के लिए आ सकते हैं। हम सब उनका निचे इंतजार करेंगे।

सेठी साहब ने मुस्कुराते हुए कहा कहा, “मुझे ड्रिंक करने की कोई जल्दी नहीं है। अगर तुम मेरा साथ दोगी तो डिनर के बाद हम साथ में ड्रिंक करेंगे।”

मैंने कहा, “सेठी साहब, यह मेरा मायका है। यह कोई दिल्ली नहीं, जो हम हमारी मन मर्जी का करें। हमें कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है।यह शहर नहीं, एक छोटा सा गाँव है। यहां तो मेरी साड़ी का पल्लू अगर थोड़ा सा भी हट गया या मेरी साड़ी कमर से कितनी निचे है यह भी देख कर टिपण्णी की जाती है, ड्रिंक करना तो दूर की बात है। “

मेरी बात सुन कर सेठी साहब को जैसे भारी सदमा पहुंचा हो ऐसे उनका चेहरा फीका पड़ गया। शायद उन्होंने उम्मीद रखी होगी की मैं अपने मायके में उनके साथ अकेले में कुछ समय बिता पाउंगी। अपने आप को सम्हालते हुए मेरे सामने खिसियानी नजर कर बोले, “ओह…. मैं समझ सकता हूँ। आई ऍम सॉरी। आपकी बात सही है। चलिए डिनर के लिए चलते हैं। मुझे ड्रिंक का कोई क्रेज नहीं। ड्रिंक तो दिल्ली जा कर भी कर लेंगे।” यह कह कर सेठी साहब उठ खड़े हुए और चल दिए।

सेठी साहब का उतरा हुआ चेहरा देख मुझे बहुत बुरा लगा। कार मैं प्यार भरी हरकतें कर सेठी साहब के मन में लालसा तो मैंने ही जगाई थी ना? अब गाँव आ कर मैं पलट गयी ऐसा शायद उनको लगा होगा।

डिनर के दरम्यान सेठी साहब मेरे भाई, भाभी और पापा से बड़ी विनम्रता पूर्वक बातें करते रहे पर मैं जानती थी की उनकी बातों में जान नहीं थी। मेरे पापा बार बार उनको हमारे घर में पुरे तीन दिन रुकने के लिए कहते रहे पर सेठी साहब का मन जैसे उठ गया हो, वह उस बात को टाल कर साफ़ हाँ कहने से बचते रहे। कार में जब मैंने सेठी साहब से मेरे मायके में तीन दिन पुरे रुकने के लिए कहा था तब वह रुकने के लिए काफी उत्सुक लग रहे थे, पर हमारी बात के बाद उनमें वह उत्साह गायब था।

डिनर के बाद सेठी साहब उठ खड़े हुए और मेरे पापा और भाई, भाभी से हाथ जोड़ कर औपचारिकता पूर्वक बात करते हुए बोले की वह थक गए हैं और उन्हें अगले दिन काफी काम है सो वह रात को जल्दी सोना चाहेंगे। यह कह कर वह सीढ़ी चढ़ कर ऊपर की मंजिल जहां उन्हें रुकना था, चले गए। मैं ड्राइवर को देखने बाहर आँगन वाले कमरे की और गयी की मैं खुद देखूं उसके रुकने और खाने की सही व्यवस्था हुई या नहीं। मुन्ना पुरे समय भाई की बेटी के साथ बातें करने, टीवी देखने और खेलने में लगा रहा।

गाँव में सब जल्दी सो जाते थे। जब मैं फारिग हुई तब करीब १० बज चुके थे। मैं ड्राइवर से मिल कर वापस आयी तो सब अपने अपने कमरे में जा चुके थे। सिर्फ माँ डाइनिंग टेबल पर बैठी मेरा इंतजार कर रही थी। मुन्ना ड्राइंग रूम में सोफे पर सो गया था। माँ और पापा के कमरे में जा कर मैंने सब की कुशलता बगैरह के बारे में बात की।

कुछ समय बात कर मैं मुन्ने को ले कर ऊपर की मंजिल पर अपने कमरे में जाने लगी तो माँ ने हिदायत दी की ऊपर जाते समय मैं सीढ़ी का दरवाजा पीछे से बंद कर दूँ। ऊपर की मंजिल पहुंचते ही मैंने देखा की सेठी साहब बाहर झरोखे में खड़े हुए हमारे घर के पीछे खेतों में जैसे कुछ देख रहे हों। हम औरतें हमारे मर्दों को काफी अच्छी तरह जानती हैं। जब वह रूठ जाते हैं तो हम औरतों की तरह वह अपनी फीलिंग्स छिपा नहीं सकते। मैं समझ गयी थी की सेठी साहब मुझसे कुछ हद तक रूठे हुए थे।

मुन्ने को अपने कमरे में पलंग पर अच्छी तरह सुला कर मैं वापस झरोखे में आयी। मेरे मायके में सब निचे की मंजिल के कमरों में ही रहते थे। ऊपर की मंजिल में दो कमरे मेहमान के लिए खाली रखे हुए थे। अक्सर ऊपर की मंजिल जाने के दरवाजे पर रातको ताला लगा हुआ होता था ताकि रात को ऊपर से झरोखे पर चढ़ कर कोई चोर निचे ना आ सके। गॉंव में चोरियों का डर होता है। मैंने ऊपर आते हुए सीढ़ी के दोनों दरवाजे, एक निचे वाला और एक ऊपर वाला, को मेरे पीछे बंद कर दिया था। ऊपर की मंजिल पर उस समय मैं, मुन्ना और सेठी साहब के अलावा और कोई नहीं था।

उस समय सेठी साहब के मन में क्या चल रहा होगा यह मैं अच्छी तरह जानती थी। उनका दिल मैंने मेरी रूखी बातों से आहत कर दिया था। मुझे उनके चेहरे पर फिरसे वही शरारत और शौखियाँ लानी थी। मेरे आने की जब सेठी साहब ने आहट सुनी तो पीछे मुड़े और मुझे देख कर हलके से मुरझाये हुए शायद औपचारिकता दिखाने के लिए मुस्काये। पर उनकी फीकी सी मुस्कान में उनके मन के भाव स्पष्ट दिख रहे थे।

मैंने झरोखे की बत्ती को बुझा दिया और सेठी साहब के पास जा कर पूछा, “क्या बात है? आप तो थक गए थे न? अब यहां बालकनी में ऐसे मुंह फुला कर क्यों खड़े हो?”

सेठी साहब ने मेरी और नहीं देखा और मुझसे थोड़ी दूर हट कर रिसियानी शकल बना कर खड़े हो गए। मेरी बात का उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। मैं सेठी साहब के पास जा कर उनसे कस कर लिपट गयी और फिर उनके कानों में धीमी आवाज में फुसफुसाती हुई बोली, “मोरे सैय्याँ मोसे रूठ गए, अब उनको मैं मनाऊं कैसे?”

सेठी साहब ने मेरी पीठ पर प्यार से हाथ फिराया और कुछ दुखी मन से झुंझलाते हुए बोल पड़े, “क्यों अब क्यों मुझसे लिपट रही हो? तुम्हारे नियम पालन का क्या हुआ? अभी भी तो हम गांव में ही हैं।“

मैं सेठी साहब का कटाक्ष समझती थी। झरोखे में अन्धेरा था। मैंने सेठी साहब के सिर को खिंच कर निचे की और झुकाया और उनके होँठों को मेरे होँठ पर चिपकाते हुए कहा, “ओय होय! मेरे सैय्यांजी रूठ गए रे! सेठी साहब अब हम गाँव में नहीं अँधेरे में हैं। अँधेरे में गाँव में भी सब कुछ होता है।”

मेरी बात सुन कर सेठी साहब का मुरझाया हुआ चेहरा अचानक खिल उठा। सेठी साहब ने निचे झुक कर मेरी दोनों घुटनों के निचे बाँहें डालकर मुझे अपनी बाँहों में उठा कर मेरे होँठों को जोर से चूमते हुए कहा, “अच्छा? अँधेरे में गाँव में और क्या क्या होता है? बताओ तो?” फिर वह बोले, “तुम नहीं, अब मैं बताता हूँ की गाँव में अँधेरे में क्या क्या होता है।”

मैं उस वक्त कुछ भी बोलने की हालत में नहीं थी। मैं सेठी साहब की गर्दन के इर्दगिर्द अपनी बाँहों की माला बनाकर उनकी बाँहों में बड़े सकून के साथ ऊपर उठे हुए उनके होँठों में अपने होँठों को चुसवाते हुए सेठी साहब के मुँह को बड़े प्यार से चूसती रही। सेठी साहब ने अपनी फौलादी बाँहों में मुझे ऐसे ऊपर हवा में उठा रखा था जैसे मैं कोई औरत नहीं कोई हलकी सी फूल की लड़ी थी।

सेठी साहब के होंठ और मुंह मेरी जीभ को ऐसे चूस रहे थे जैसे वह मेरे बदन से सारा पानी निकाल देंगे। मैं भी सेठी साहब की जीभ को अपने मुंह में लेकर उनकी लार बड़े ही प्यार से पिने लगी। आसमान के तारों के हलके से प्रकाश में मैं सेठी साहब के चेहरे को देख रही थी। उनकी आँखें जैसे नशे में डूबी हुई हों इस तरह वह कभी आँखें मूँद कर तो कभी मेरी आँखों में आँखें डालकर बेतहाशा जोशखरोश से मेरे होँठ चुम रहे थे।

एक बार जब सेठी साहब ने जोश में आकर मेरे होँठ काटे तो मेरे मुंह से ना चाहते हुए भी हलकी सी सिसकारी निकल गयी। मैंने सेठी साहब के मुंह से मुंह हटा कर कहा, “सेठी साहब प्लीज हमारी आपसी करतूतों का कोई निशान दिखे ऐसा अभी मत करना। वरना मेरी बदनामी हो जायेगी। आप नहीं चाहोगे ना की मैं बदनाम होऊं?”

मेरी बात सुनकर सेठी साहब ने मुझे अपनी बाँहों में उठा कर सीने से चिपकाए हुए अपने कमरे की और जाते हुए बोले, “बिलकुल नहीं। अब हम जो करेंगे अँधेरे में ही करेंगे और मैं अब सब कुछ करूंगा पर वादा करता हूँ की कोई खुला दिखे ऐसा निशान नहीं छोडूंगा जिससे तुम्हारी बदनामी हो। बोलो मंजूर है?”

मैंने सेठी साहब के गालों को चूमते हुए कहा, “मैंने तो आपको पहले ही सैय्यां कह कर अपनी मंजूरी दे दी है। जबसे आपने मुन्ने की स्कूल में मेरे हस्बैंड बनने की इच्छा जताई थी तब से मैंने तो आपको मेरा दूसरा पति माने उपपति मान लिया था। राज मेरे पति हैं और मेरा बदन उनके भोग मतलब आनंद के लिए है वैसे ही अब आपको मैंने अपना उपपति मान लिया है और मेरा यह बदन आप के भी भोग और आनंद के लिए प्रस्तुत है..

मैं अब पूरी रात के लिए आपकी पत्नी हूँ, आपकी प्रियतमा हूँ, दासी हूँ, रखैल हूँ, आपकी रंडी हूँ जो आप मुझे मानें। आप मुझसे जो चाहे करें और करवाएं। मुझे सब मंज़ूर है, मैं तैयार हूँ। आप के प्यार और बलिदान ने मुझे जित लिया है। आज मुझे मौक़ा मिला है की मैं आपने आपको आपके हवाले कर आपसे उत्कट प्यार का आदान प्रदान करूँ।”

मुझे कमरे में ले जा कर पलंग पर लिटाते हुए सेठी साहब बोले, “टीना मुझे तुम्हारी तरह इतने भारीभरकम शब्द नहीं आते। मैं तो सिर्फ इतना ही कहूंगा की मैं तुम्हारे पति बनने का सौभाग्य……”

मैंने सेठी साहब की बात को बिच में ही काटते हुए कहा, “सेठी साहब, मैं जानती हूँ की आप और सुषमाजी दोनों साफ़ साफ़ देसी भाषा में बोलना पसंद करते हैं। ख़ास कर सेक्स के सम्बंधित बातें। अब हमारे बिच ऐसे सम्बन्ध नहीं रहे की आपको मुझसे नापतोल कर बोलने की जरुरत है। आप बेशक आपकी मनपसंद और देसी भाषा में मुझसे जो कहना है वह बेबाक कह सकते हो। यह एक पल के लिए भी मत सोचना की मैं क्या सोचूंगी।”

सेठी साहब ने मेरे होँठ चूमते हुए कहा, “मेरी टीना रानी इतने कम समय में काफी सयानी हो गयी है। ठीक है मेरी रानी, अब मैं तुमसे देसी भाषा में ही बात करूँगा। टीना, तुम मेरी दासी, रखैल या रंडी नहीं, मेरी प्रियतमा हो, मेरे दिल की रानी हो। जैसे तुमने मुझे उपपति का ओहदा दिया है, मैं भी तुम्हें मेरी उपपत्नी के रूप में स्वीकार करता हूँ। मैंने सुषमा से शादी करते समय वादा किया था की मैं किसी भी और स्त्री की भले ही चुदाई करूँ, पर मैं उसे पत्नी का दर्जा नहीं दूंगा..

पर जैसे की सुषमा ने तुम्हें बताया है, हम मतलब, मैं और सुषमा, किस्मत के एक अजीब खेल में फंसे हैं। इसी समय माँ ने मतलब दुर्गा माँ ने तुम्हें और राज भाईसाहब को हमारे लिए देवदूत के रूप में भेजा है ऐसा मेरा मानना है। हमारे बिच जो सम्बन्ध उजागर हो रहे हैं शायद माँ उसके द्वारा हमारी समस्याओं को अपने तरीके से सुलझाना चाहती है अगर तुम और राज साहब राजी हों तो…….।”

पढ़ते रखिये.. कहानी आगे जारी रहेगी!

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